शब्दों को बीनने-पिरोने में लगी हूँ मैं
समय फिसलता जा रहा है
और शब्द -
जैसे सतह की काई !
समेटने के चक्कर में
ख़ुद फिसल जाती हूँ
एक पल को
ख़ुद पर हँसी छूट जाती है
पर दूसरे ही पल
मन अफ़सोस से भर जाता है !
कितने क़िस्से फिसल गये
हाथों से !
पर अनगिनत गले हुये चिपक जाते हैं
मेरी उँगलियों से
सिहरन सी दौड़ जाती है
उफ़ ! कितनी सड़ांध है !!!
Friday, November 11, 2016
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