Friday, November 11, 2016

शब्दों को बीनने-पिरोने में लगी हूँ मैं
समय फिसलता जा रहा है
और शब्द -
जैसे सतह की काई !

समेटने के चक्कर में
ख़ुद फिसल जाती हूँ
एक पल को
ख़ुद पर हँसी छूट जाती है
पर दूसरे ही पल
मन अफ़सोस से भर जाता है !

कितने क़िस्से फिसल गये
हाथों से !
पर अनगिनत गले हुये चिपक जाते हैं
मेरी उँगलियों से

सिहरन सी दौड़ जाती है
उफ़ ! कितनी सड़ांध है !!!