बादलों की छत तले
बूँदों की ओढ़नी
और फुहारों का बिछौना ।
पुरवाईयों के पंखे
सर-सर, फ़र-फ़र .....
तपिश बह चली है
बहते पानी के साथ,
रग-रग में भरती जा रही है
ठंडक और सुकून ।
सराबोर हुआ जा रहा है मन
प्रकृति की इस प्यार भरी छुवन से ।
ढाँप लेते हैं बादल मुझे
हिफ़ाज़त से -
एक संरक्षक की तरह,
उनमें बहती जा रही हूँ मैं
क्षितिज के उस ओर,
धुलते जा रहे हैं सब ओर-छोर
देते हैं तपते मन को ठंडक -
उन्हीं से बाँट लेती हूँ
आँखों से बरसते मन के उदगार ।