Saturday, December 29, 2007

कल रात चाँद दिखा था
छुप के झांक रह था
वो मेरी खिड़की से

ज़रा सा मुस्कुरा क्या दिया
धीरे से सरक के आ गया वो
मेरे बिस्तर के पायताने पे

रात भर फुसलाता रहा
कर के बातें वो फिलोसोफी की
सुबह कि आहट पाते ही
निकल गया वो फिर धीरे से
रास्ते चल पड़े
घुमाव - भरे

कहीं तो हैं पेड़
हवा - भरे
और कहीं ठूंठ
सूखे - पड़े

कहीं झाड़
कांटे - भरे
और कहीं पहाड़
ऊंचे - खडे

कहीं रास्ते
फिसलन - भरे
और कहीं झरने
बहते पड़े

सफर अभी और है बाकी
मकाम अभी बहुत हैं पड़े