Saturday, April 4, 2009

दुधवा के जंगलों में

पेड़ों में से छन के आती सुबह की धूप

और वहीं खड़ा एक चित्तीदार हिरण

सुनहरी आभा हिरण से धूप को जाती

या धूप से हिरण में समाती ???

निश्चल खड़ी -

आंखों से दिमाग की कटोरी में उड़ेल रही हूँ

अपने प्राणों की तरावट का यह अमृत -पान !

कौंध जाता है बस एक ख़्याल

सीता ने क्या यही हिरण देखा था ?

3 comments:

roushan said...

अत्यंत खूबसूरत !
बिलकुल से घूम आने का मन करने लग गया

प्रदीप मानोरिया said...

खूबसूरत सरल सहज शब्दों से बंधी गहरी भावाभिव्यक्ति हार्दिक धन्यबाद
विगत एक माह से ब्लॉग जगत से अपनी अनुपस्तिथि के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ

daanish said...

निश्चल खड़ी -
आंखों से दिमाग की कटोरी में उड़ेल रही हूँ
अपने प्राणों की तरावट का यह अमृत -पान

kaavya-shaili ka adbhut aur saraahneey prayaas.....
puratan ke qissoN ka khoobsurat
varnan bhi . . . .
badhaaaeee________
---MUFLIS---